पापी पेट सुभद्रा कुमारी चौहान
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आज सभा में लाठी चार्ज हुआ। प्रायः पांच हजार निहत्थे और शान्त मनुष्यों पर पुलिस के पचास जवान लोहबन्द लाठियाँ लिये हुए टूट पड़े। लोग अपनी जान बचाकर भागे; पर भागते-भागते भी प्रायः पाँच सौ आदमियों को सख्त चोटें आई और तीन तो बेहोश होकर सभा-स्थल में ही गिर पड़े। तीन, चार प्रमुख व्यक्ति गिरफ़्तार करके जेल भेज दिए गए।
पुलिस ने झंडे के विशाल खम्भे को काटकर गिरा दिया और आग लगा दी । तिरंगा झंडा फाड़ कर पैरों तले रौंद डाला गया। सबके हृदय में सरकार की सत्ता का आतंक छा गया।
प्रकट रूप से विजय पुलिस की ही हुई। उनके सामने सभी लोग भागते हुए नजर आए। और यदि किसी ने अपनी जगह पर खड़े रहने का साहस दिखलाया तो वह लाठियों की मार से धराशायी कर दिया गया। परन्तु इस विजय के होते हुए भी उनके चेहरों पर विजय का उल्लास नहीं था, प्रत्युत ग्लानि ही छाई थी। उनकी चाल में आनन्द का हल्कापन न था, बरन ऐसा मालूम होता था कि जैसे पैर मन-मन भर के हो रहे हों। हृदय उछल नहीं रहा था बरन एक प्रकार से दबा सा जा रहा था।
पुलिस लाइन में पहुँच कर सिपाही लाठी चार्ज की चर्चा करने लगे। सभी को लाठी चार्ज करने, निहत्थे निरपराध व्यक्तियों पर हाथ चलाने का अफ़सोस हो रहा था। राम खिलावन ने अपनी कोठरी में जाकर अन्दर से दरवाज़ा लगा लिया और लाठी को चूल्हे में जला दी। उसकी लाठी के वार से एक सुकुमार बालक की खोपड़ी फट गई थी। उसने मन में कहा बिचारे निहत्थे और निरपराधों को कुत्तों की तरह लाठी से मारना, राम राम यह हत्या! किसके लिए? पेट के लिए? इस पापी पेट का तो जानवर भी भर लेता है। फिर हम आदमी होकर इतना पाप क्यों करें? इस बीस रुपल्ली के लिए यह कसाईपन? न, अब तो यह न हो सकेगा। जिस परमात्मा ने पेट दिया है वह अन्न भी देगा। लानत है ऐसी नौकरी पर; और दूसरे दिन नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अपने देश को चला गया।